कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं
रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं
मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहां
थाम ले कोई मेरा हाथ मुझे होश नहीं
आंसुओं और शराबों में गुज़र है अब तो
मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं
जाने कुआ टूटा है पैमाना दिल है मेरा
बिखरे बिखरे हैं ख़यालात मुझे होश नहीं
Sunday 31 August, 2008
कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं
पूंछ और मूंछ
एक के पास मूंछ थी
एक के पास पूंछ थी
मूंछ वाले को कोई
पूछता नही था
पूंछ वाले की पूछ थी |
मुछ वाले के पास
तनी हुई मूंछ का सवाल था
पूंछ वाले के पास
जुकी हुई पूंछ का जवाब था |
पूंछ की दो दिशाए नही होती है
या तो भयभीत होकर दुबकेगी
या मुहब्बत में हिलेगी
मारेगी या मरेगी
पर एक वक्त में
एक ही काम करेगी |
मूंछे क्यो अशक्त है,
क्योंकि दो दिशाओ में
विभक्त है |
एक जुकी मूंछ वाला
जुकी पूंछ वाले से बोला -
यार ,
मई ज़िन्दगी में
उठ नही प् रहा हु|
पूंछ वाला बोला-
बिल्कुल नही उठ पाओगे
कारन एक मिनुत में
समज जाओगे |
बताता हु,
तुम बिना हाथ लगाए
अपनी मूंछ उठाकर दिखाओ
मई अपनी पूंछ उठाकर दिखाता हु |
जो उठा सकता है
वही उठ सकता है,
इसीलिए पूंछ वालों की
सत्ता है |
ठेकेदार भाग लिया
फावडे ने
मिटटी काटने से इंकार कर दिया
और
बदरपुर पर जा बैठा
एक और |
ऐसे में
तसले को मिटटी धोना
कैसे गवारा होता ?
काम छोड़ आ गया
फावडे की बगल में |
धुर्मुत की कदमताल ... रुक गई,
कुदाल के इशारे पर
तत्काल,
जाल ज्यों ही कुढ़ती हुई
रोती बड़बड़ाती हुई
आ गिरी औंधे मुंह
रोडी के ऊपर |
- आख़िर ये कब तक?
कब तक सहेंगे हम ?
Monday 25 August, 2008
ये इंतजार ग़लत है की शाम हो जाए
ये इंतजार ग़लत है की शाम हो जाए
जो हो सके तो अभी दौर-ऐ-जाम हो जाए
खुदा-न ख्वास्ता पीने लगे जो वाइज़ भी
हमारे वास्ते पीना हराम हो जाए
मुझ जैसे रिंद को भी तू ने हश्र में या रब
बुला लिया है तो कुछ इंतज़ाम हो जाए
वो सहन-ऐ-बाग़ में आए हैं माय -काशी के लिए
खुदा करे के हर इक फूल जाम हो जाए
मुझे पसंद नहीं इस पे गाम -जान होना
वो रह-गुज़र जो गुज़र-गाह-ऐ-आम हो जाए
ऐनक - सागर खैय्यामी
एक रोज़ हम से कहने लगी एक गुलबदन
ऐनक से बाँध रखी है क्यों आप ने रसन
मिलता है क्या इसी से ये अंदाज़-ऐ-फ़िक्र-ओ-फन
हम ने कहा की ऐसा नहीं है जनाब-ऐ-मन
बैठे जहाँ हसीं हों एक बज्म-ऐ-आम में
रखते हैं हम निगाह को अपनी लगाम में
Wednesday 6 August, 2008
वय निघून गेले
देखावे बघण्याचे वय निघून गेले
रंगांवर भुलण्याचे वय निघून गेले
गेले ते उडुन रंग
उरले हे फिकट संग
हात पुढे करण्याचे वय निघून गेले
कळते पाहून हेच
हे नुसते चेहरेच
चेहऱ्यांत जगण्याचे वय निघून गेले
रोज नवे एक नाव
रोज नवे एक गाव
नावगाव पुसण्याचे वय निघून गेले
रिमझिमतो रातंदिन
स्मरणांचा अमृतघन
पावसात भिजण्याचे वय निघून गेले
हृदयाचे तारुणपण
ओसरले नाही पण
झंकारत झुरण्याचे वय निघुन गेले
एकटाच मज बघून
चांदरात ये अजून
चांदण्यात फिरण्याचे वय निघून गेले
आला जर जवळ अंत
कां हा आला वसंत?
हाय,फुले टिपण्याचे वय निघून गेले